![]() |
Shyam Narayan Ranga श्याम नारायण रंगा |
विचार व्यक्ति व समाज को आईना दिखाता है और यह विचार ही है जो किसी व्यक्ति या संगठन को खड़ा करता है या रसातल में ले जाता है। व्यक्ति का निर्माण भी विचार से ही होता है और विचार की लड़ाई लड़कर ही व्यक्तियों ने इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाया है। महात्मा गांधी व्यक्ति के रूप में एक स्थूल काया थे और जब विचार बनकर समाज के सामने आए तब राष्ट्रपिता भी लोग कहने लगे।
यही विचारधारा राष्ट्र व समाज की दिषाएं निर्धारित करती है और निर्माण और विनाष भी करती है। यहां मैं यह जरूर कहना चाहूॅंगा कि विचारधाराएं भिन्न होती है इसलिए मतान्तर मान्य है परंतु किसी भी विचार को इसलिए दरकिनार कर देना कि वो अपने खुद के विचारों से मेल नहीं खाता लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। अगर कोई व्यक्ति या संगठन किसी भी विचार को इसलिए सिरे से खारिज करता है कि वो विचार उसके स्वयं के विचार से मेल नहीं खाता तो ऐसे व्यक्ति को हम फासिस्ट या तानाषाह कह सकते हैं। कुछ ऐसी ही वैचारिक लड़ाई वर्तमान में भारतीय राजनैतिक पटल पर देखने को मिल रही है।
यही विचारधारा राष्ट्र व समाज की दिषाएं निर्धारित करती है और निर्माण और विनाष भी करती है। यहां मैं यह जरूर कहना चाहूॅंगा कि विचारधाराएं भिन्न होती है इसलिए मतान्तर मान्य है परंतु किसी भी विचार को इसलिए दरकिनार कर देना कि वो अपने खुद के विचारों से मेल नहीं खाता लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। अगर कोई व्यक्ति या संगठन किसी भी विचार को इसलिए सिरे से खारिज करता है कि वो विचार उसके स्वयं के विचार से मेल नहीं खाता तो ऐसे व्यक्ति को हम फासिस्ट या तानाषाह कह सकते हैं। कुछ ऐसी ही वैचारिक लड़ाई वर्तमान में भारतीय राजनैतिक पटल पर देखने को मिल रही है।
जबसे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भारत के केन्द्र में सत्ता में आई है तबसे यह वैचारिक लड़ाई खुले आम नजर आने लगी है। मुझे याद है आम चुनावों के समय राहुल गांधी ने कहा था कि यह पार्टीयों की नहीं विचारों की लड़ाई है और भारतीय लोकतंत्र ने कांग्रेस विचारधारा को एकदम से नकार दिया था लेकिन यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी विचार पर देष ने पिछले कईं दषकों तक इस विचार को अपने सिर बैठा कर रखा था। नरेन्द्र मोदी एक उदार चेहरा नहीं है और इसके साथ ही अपने से विपरित विचारों को मानने वाले व्यक्तित्व भी नहीं है यह उन्होंनेे अपने कार्यों और आदेषों से साबित किया है। इस केन्द्र सरकार ने आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा आदेष निकाला कि पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति सहित केन्द्र के पूर्व स्वर्गीय मंत्रियों की पुण्यतिथि व जयंति अब सरकारी स्तर पर नहीं बल्कि उनके पारिवारिक स्तर पर मनाई जाएगी और कोई भी सरकारी व्यक्ति इसमें हिस्सा नहीं लेगा इस मानसिकता का जीता जागता उदाहरण है। इसी कारण इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चाहकर भी शक्ति स्थल नहीं जा सके। इस आदेष से यह बात समझ में आती है कि वर्तमान में जिस विचारधारा के लोग सत्ता में है वे लोग अपने से विपरीत विचारधारा वाले व्यक्तियों की समाधि पर जाकर पुष्पांजलि व श्रद्धांजलि अर्पित करने के सामान्य षिष्टाचार में भी विष्वास नहीं रखते । जो भी हो विष्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्ररपति के लिए इस तरह के आदेष क्या तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने जैसा नहीं है क्या वे प्रधानमंत्री बिना जनादेष के बने थे या तत्कालीन जनता का दिमाग खराब था। नहीं बल्कि बात यह है कि आजादी के बाद पहली बार गैर कांग्रसी विचारधारा पूर्ण बहूमत के साथ सत्ता में आई है और अब इनके पास अपनी विचारधारा को थोपने का पूरा मौका है और ये लोग ऐसे पूरे प्रयास कर रहे हैं चाहे ऐसे प्रयासों से किसी का अनादर भी क्यों न होता हो। निष्चित ही ऐसे आदेष लोकतांत्रिक षिष्टाचार तो हर्गिज नहीं कहे जा सकते हैं।
एक दूसरा उदाहरण तब देखने को मिला जब नरेन्द्र मोदी हालही में अपनी बांग्लादेष की यात्रा पर गए और वहां से माननीय अटल बिहारी वाजपेयी को बांग्लादेष की आजादी का सम्मान दिलवाकर ले आए। वहां पर भारतीय प्रधानमंत्री ने बांग्लादेष की आजादी की लड़ाई का जिक्र किया परंतु जिस लौह महिला कही जाने वाली इंदिरा गांधी के कारण ऐसा संभव हो पाया था उसका जिक्र तक न करके एक बार फिर साबित कर दिया कि जैसे वे इंदिरा की समाधि पर जाकर श्रद्धांजलि अर्पित नहीं कर सकते वैसे ही वे बांग्लादेष के निर्माण का सेहरा भी इंदिरा के सिर बंधा देख नहीं सकते। नरेन्द्र मोदी ने उस संघर्ष का बांग्लादेष का साथ निभाने के लिए तत्कालनीन समय में इंदिरा गांधी को शक्ति दुर्गा व मां कहने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की प्रषंसा की और सम्मानित करवा कर भी लाए। जबकि पूरी दुनिया जानती है कि उस समय वो प्रयास इंदिरा गांधी की महत्वकांक्षा व मजबूत इच्छाषक्ति के बिना किसी भी रूप में संभव नहीं था।
अब ऐसा ही कुछ नजारा 21 जून को देखने को मिलेगा जब पूरा देष योग दिवस मनाएगा। ये वो विचारधारा वाले लोग हैं जो शांतिवन शक्तिस्थल वीरभूमि पर जाकर सिर नहीं झुका सकते परंतु केषव बलिराम हैडगेवार की पुण्यतिथ को योग दिवस के रूप में मनाकर पूरे देष को इस बात के लिए बाध्य जरूर कर सकते हैं कि आज 21 जून का दिन याद करें। यहां मै यह स्पष्ट कर दूं कि मैं योग का विरोधी नहीं हूॅं सिर्फ जो 21 जून का दिन तय किा गया है इसके पीछे जो विचार है उसको यहां प्रकट करने की कोषिष कर रहा हूॅं। दो अक्टूबर की छुट्टी को निरस्त करने वाली सरकार 21 जून का महत्व बढ़ाना चाहती है। पूरे देष को योग करवाने के लिए किसी और दिन का भी निर्धारण किया जा सकता था परंतु 21 जून का दिन इसलिए चुना गया क्योंकि जिस विचारधारा से नरेन्द्र मोदी निकलकर आतेे हैं उस विचारधारा के सर्वोच्च व्यक्ति उस दिन स्वर्ग सिधारे थे।
इस तरह एक ही परिवार और विचार को स्थापित करने का जो आरोप बरसो से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के लोग कांग्रेस पर लगा रहे हैं कुछ वैसा ही काम वर्तमान सरकार खुद कर रही है कि एक ही व्यक्ति के पीछे चलना और एक ही विचार को पूरे राष्ट्र पर थोपना और एक आंख से पूरे देष को देखने की कोषिष करना। इस विषय वाल्तेयर का यह कथन जरूर याद आता है कि हो सकता है मैं आपके विचारो से सहमत न हो पाऊ पर विचार प्रकट करने के अपने अधिकारों की रक्षा अवष्य करूंगा। मैं यह कहकह अपनी बात समाप्त करना चाहूॅंगा कि विचारों की कद्र करना सभ्य व लोकतांत्रिक राष्ट्रों व सभ्य समाज की पहचान होती है परंतु किसी विचार व विचार से जुड़े लोगों की बेईज्जती करना अपमान करना निष्चित ही पतन का कारण बनता है क्योंकि जहां विचार की कद्र नहीं वहां विकास नहीं।
श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’
पुष्करणा स्टेडियम के पास
नत्थूसर गेट के बाहर
बीकानेर {राजस्थान} 334004
मोबाईल: 9950050079
ईमेल : shyamnranga@gmail.com
No Comment to " विचारधारा की राजनैतिक लड़ाई "
Post a Comment