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राजस्थान में आने वाले नवम्बर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और भारतीय जनता पार्टी व काँग्रेस सहित प्रमुख दलों ने अपने आप को इन चुनावों की तैयारी में झोंक दिया है। वर्तमान परिस्थितियों पर गौर किया जाए तो यह लगता है कि वर्तमान भाजपा शासित वसुंधरा सरकार ने राजस्थान के विकास को नए आयाम दिए हैं। वसुधरा सरकार पूरी तरह से यह प्रचार प्रसार करने में लगी है कि राजस्थान की जय हो
गयी है और यह जय वसुधरा ने करवाई है। पिछले चुनावों में जाटों, राजपूतों, गुर्जरो सहित ब्राह्मणों व सरकारी कर्मचारियों का समर्थन पाकर वसुधरा सरकार सत्ता में आई थी। राजनैतिक दांवपेंचों के साथ पिछले पाँच सालों में वसुधरा सरकार ने इन सब वर्गों को खुश करने का प्रयास किया है और इसी तथ्यों को आधार बनाकर अपनी सत्ता को बरकार रखने की हर संभव कोशिश मे लगी है।
आने वाले विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि काँग्रेस व भाजपा दोनों के लिए इस बार रास्ता आसान नजर नहीं आता है। काँग्रेस पिछले पाँच सालों में सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने में नाकाम रही है। प्रदेश में पानी को लेकर बडा आंदोलन हुआ, आरक्षण की मांग पर प्रदेश में आग की लपटें उठती रही लेकिन काँग्रेस इन सब मुद्दों को भुनाने में नाकाम रही और ऐसा एक भी मौका नहीं आया कि पाँच सालों में काँग्रेंस जनता के मुद्दों को लेकर गंभीरता से सामने आई हो। काँग्रेस ने पिछले पाँच सालों में तीन प्रदेश अध्यक्ष बदले और इतने ही प्रतिपक्ष नेताओं को बदला। पाँच सालों में काँग्रेस की गुटबाजी भी कईं बार खुलकर सामने आई और अश्क
अली टॉक जैसे नेताओं को जूतों की माला उनके ही कार्यकर्ताओं ने पहनाई। प्रदेश की जनता व सरकारी कर्मचारियों में पिछली गहलोत सरकार के प्रति नाराजगी को काँग्रेस आलाकमान शायद समझ नहीं पा रहा है और चापलूसों की फौज के सामने काँग्रेस का कार्यकर्ता अपने आप को असहाय महसूस कर रहा है। कॉग्रेस पिछले पाँच सालों में नाराज जाटों को खुश नहीं कर पाई। नारायण सिंह बेडा को जरूर शुरू में प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया लेकिन जल्दी ही उनकी छुट्टी कर दी गई और उनकी
जगह तत्कालीन प्रतिपक्ष नेता बी डी कल्ला को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर ब्राह्मणों को खुश करने का प्रयास किया गया। काँग्रेस ने पाँच सालों में ब्राह्मण व जाट समीकरण बनाने के कईं प्रयास किए लेकिन न जाने संगठन स्तर पर क्या समस्या रही कि अभी भी काँग्रेस इस समीकरण को सुलझा नहीं पाई है। काँग्रेस के वर्तमान में भी ब्राह्मण नेता
सी पी जोशी को अध्यक्ष बना रखा है और जाट नेता हेमाराम चौधरी को प्रतिपक्ष नेता बना रखा है। साथ ही परसराम मोरदिया को कार्यवाहक अध्यक्ष बनाकर कॉग्रेस ने अनुसूचित जाति को प्रतिनिधित्व देने की बात भी की है। काँग्रेस की उलझन यह है कि काँग्रेस मतदाता को अपनी तरफ खींचने में नाकाम रही है। पार्टी का एक बडा धडा जहाँ अशोक गहलोत को आगामी मुख्यमंत्री देखना चाहता है वहीं काँग्रेस की जाट राजनीति गहलोत के नाम से ही बिदक पडती है। काँग्रेस की मुश्किल यह है कि अगर जाटों को नाराज कर नहीं सकती
थी तो इधर अशोक गहलोत से दूरी बना नहीं सकती। इसी उलझन के कारण काँग्रेस आम मतदाता से पिछले पाँच साल में दूर रही और अब वह केन्द्र की सरकार के नाम पर वोट बटोरना चाहती है।
एक बात यह भी है राजस्थान के उत्तर पश्चिम इलाके में पिछले सालों में पानी को लेकर बडा आंदोलन हुआ और कईं किसानों की पुलिस की गोली से मौत भी हुई और इस आंदोलन ने प्रदेंश की राजनीति को हिला के रख दिया लेकिन काँग्रेस उस राजनैतिक भूचाल का कोई फायदा नहीं उठा पाई। काँग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष व पूर्व प्रतिपक्ष नेता बी डी कल्ला ने आंदोलन स्थल पर जाकर सहानुभूति बटोरने का प्रयास भी किया लेकिन प्रदेश स्तर के अन्य नेताओं व अंदरूनी गुटबाजी के कारण कल्ला भी वहाँ अलग थलग पडे ही नजर आए। इसी तरह गुर्जर आंदोलन में काँग्रेस पार्टी की उलझन यह रही कि वह गुर्जरों का विरध करती तो भी परेशानी होती और विरोध नहीं किया तो भी पार्टी को फायदा नहीं हुआ। इस तरह पिछले पाँच सालों में काँग्रेस सकि्रय विपक्ष के रूप में नजर नहीं आया।
अब काँग्रेस के लिए आगामी चुनावों की वैतरनी पार करना एक बहुत मुश्किल काम है। काँग्रेस की नैया अब इस भरोसे है कि वह अपने टिकटों का वितरण किस प्रकार करती है अगर काँग्रेस टिकट वितरण में अव्वल रहती है तो काँग्रेस को आगामी चुनावों में सफलता मिल सकती है।
इसी तरह बात भारतीय जनता पार्टी कि करें तो वहाँ भी संगठन व सत्ता का तालमेल बिगडा हुआ नजर आता है। महारानी वसुधरा के सामने जहॉ सारे मंत्री संतरी बने नजर आते हैं वहीं भाजपा का संगठन भी महारानी की तानाशाही के सामने बौना नजर आता है। सरकार जहाँ यह कहने से नहीं थक रही कि उसने राजस्थान में विकास की गगा बहाई है वहीं समय समय सरकार के प्रत्येक मंत्री पर लगे घोटालों ने सरकार की उलझन को बढा रखा है। प्रतापचंद सिंघवी, राजेन्द्र राठौड, भवानीसिंह राजावत सहित प्रदेश के बडे बडे मंत्री भूमि घोटालों व अन्य घोटालों से घिरे नजर आ रहे हैं। संगठन की बेरूखी के कारण सरकार को अब काफी मुश्किल का सामना करना पड रहा है। पिछले पाँच सालों में सत्ता व संगठन की जो फजीहत हुई वह शायद भाजपा में कभी नहीं हुई। वहीं दूसरी तरफ सरकार से कर्मचारियों को छोडकर प्रत्येक वर्ग नाराज नजर आता है। किसानों पर कईं बार गोलियाँ चला चुकी यह सरकार किसानों का विश्वास खो चुकी है। प्रदेश का किसान चुनावों के इंतजार में है कि कब उन्हें मौका मिले और वह अपने नौजवान बेटों की मौत का बदला ले। गाँवों में घूमने पर पता चला कि प्रदेश का किसान गहलोत सरकार को बहत याद करता है जिसके जमाने में अकाल राहत के नाम उनके घरों में अनाज के गोदाम भरे पडे थे लेकिन भ्रष्टाचार के कारण इस बार किसानों के पास न पानी है और न ही अपने लोन चुकाने के लिए पैसा। और यह स्थिति वसुधरा सरकार को संकट में डाल सकती है। पिछले चुनावों में जाट महासभा ने खुलकर वसुधरा का समर्थन किया था। इस बार जाट महासभा ने भी काँग्रेस को समर्थन की घोषण कर दी है। राजाराम मील से वसुधरा का झगडा इस बदर बढा कि जयपुर में मील की हवेली पर बुलडोंजर चला दिया गया और अब मील सरकार पर बुलडोजर चलाने की फिराक में है। अगर वसुधरा सरकार जाटों को खुश नहीं कर पाती है तो वसुधरा के लिए आगामी चुनाव जितना बडा मुश्किल काम हो जाएगा क्योंकि आजादी के आद आज तक राजस्थान प्रदेश की राजनीति के भाग्य विधाता जाट ही रहे हैं। जाटों के समर्थन पर सरकारें गिरी हैं और बनी है। पिछली बार राजपूतों ने भी महारानी वसुधरा को जमकर समर्थन दिया था वहीं इस बार राजपूतों की करणी सेना व अन्य संगठन वसुधरा सरकार के सामने खुलकर खडे हैं। राजपूत समाज को खुश रखने में यह सरकार सफल नहीं हो पाई। सामाजिक न्याय मंच के देवीसिंह भाटी को भाजपा में शामिल करके वसुधरा ने एक प्रयास जरूर किया है लेकिन पिछले पाँच सालों में यह स्पष्ट हो चुका है कि देवीसिंह भाटी के साथ सिर्फ बीकानेर जिले के राजपूत ही है प्रदेश स्तर की राजपूत राजनीति में भाटी बडे नेता नजर नहीं आते व सरकार में शामिल राजेन्द्र सिंह राटौड व भवानी सिंह राजावत जैसे नेता भी अपनी छवी उस स्तर की नहीं बना पाए हैं कि वे सरकार को पूरे समाज का समर्थन दिला सके । इसी तरह पिछले चुनावों में प्रदेश के गुर्जर समाज ने अपनी समधन का खुलकर स्वागत किया था लेकिन इस बार यह समाज भी सरकार ने नाराज है। सरकार ने गुर्जरों के समर्थन में चिट्ठी भेजकर सहानुभूति बटोरने का प्रयास तो किया है लेकिन यह प्रयास कितना सार्थक होता है वह आने वाले समय में ही पता चलेगा। गुर्जर समाज की सरकार से नाराजगी जग जाहिर है और गुर्जर समाज के विधायकों को खुश रखने में भी वसुधरा पूरी तरह नाकाम रही है। संगठन म भी वर्तमान में भैरोंसिह शेखावत जैसे कद्दावर नेता की कमी राजस्थान के भाजपाईयों को खल रही है और संगठन के साथ महारानी का तालमेल आज तक नहंी हो पाया है। यह मामला कईं बार दिल्ली दरबार तक भी गया लेकिन वहाँ से भी कोई सार्थक समाधान निकला नहीं। भाजपा का आलाकमान भी मोदी की तर्ज पर वसुधरा को खुली छूट देने के मूड में दिखता है लेकिन गुजराज का यह फार्मूला राजस्थान के भाजपाई पचा पाते हैं या नहीं। हालात यह है कि सरकार के मंत्री तक मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते और उन्हें भी सप्ताह भर का इंतजार करना पडता है। पिछले पाँच सालों में भाजपा का आम कार्यकर्ता अपने आप को ठगा सा महसूस करता है। निगमों बोर्डो की नियुक्ति के वक्त भी प्रदेश स्तर पर भाजपा के कार्यकर्ता की अनदेखी की गई और अगर पार्टी का कार्यकर्ता खुश नह हो पाता तो पार्टी के लिए जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी तरफ भाजपा का संघ परिवार भी वर्तमान सरकार से खुश नजर नहीं आता। सत्ता के संघ परिवार की अनदेखी भी महारानी वसुधरा के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती है।
बात यहाँ पर भी यह नजर आती है कि भाजपा का पार्टी आलाकमान टिकटों का वितरण किस आधार पर किस व्यक्ति को केन्द्र में रखकर करता है। अब टिकट वितरण ही पार्टी के लिए स्थिति स्पष्ट करेगा।
पिछली गहलोत सरकार भी सत्ता के मद में चूर थी और हालात यह थे कि राष्ट्र के नम्बर वन मुख्यमंत्री अपने आने वाली सरकार के मंत्रीमंडल को तय करने में लगे थे। वर्तमान हालात भी कुछ ऐसे ही नजर आ रहे हैं और वर्तमान सरकार व उनके मंत्री भी आने वाला समय अपना ही मान रहे हैं और सरकार की योजनाऍं उसी अनुसार बन रही है। अब होगा क्या यह तो प्रदेश की जनता के हाथ में है।
लोकतंत्र में यही तो मजा है कि इन सब बातों का निर्णय नेता नही करते यह तो लोक को तय करना है कि वो आने वाला तंत्र कैसा बनाएगा। लोक के हाथों में तंत्र का निर्माण लिखा है और लोकतंत्र का यह उत्सब नवम्बर में राजस्थान में होना है। इस उत्सव की खुशी कौन मनाता है यह तो आने वाला समय बताएगा हम तो यह ही कह सकते हैं कि बहुत कठिन है डगर पनघट की ............
- article by : श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’ (Shyam Narayan Ranga)
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