समाज
सेवा का सबसे अच्छा व लोकप्रिय का एक साधन पत्रकारिता के रूप मे भी प्रतिष्ठित है और बीते पॉच सालों के पत्रकारिता कार्य मे मैने प्रिंट, इलैक्ट्राॅनिक, वेब मीडिया के साथ स्वतंत्र पत्रकारिता की है। इन्ही पॉच वर्षो के कार्यानुभव के आधार पर पत्रकारिता के लेकर अब मेरा एक अलग सा ही नजरिया बनता जा रहा है। अलग इसलिए की मुझे जब ई टीवी राजस्थान से जुडने से पहले एक साक्षात्कार का सामना करना पडा तो उस साक्षात्कार में ई टीवी के तत्कालीन चैनल प्रभारी तारकेश्वरजी मिश्रा ने मुझसे पूछा था कि आप इस क्षेत्र में क्यों आना चाहते हैं तो मैंने अपना नजरिया यह कहते हुए स्पष्ट किया था कि यह समाज के प्रत्येक वर्ग से जुडने का एक अच्छा जरिया है और विभिन्न संस्कृतियों, समाजों के बारे में आप अच्छी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और देश की सेवा करने का यह एक अच्छा जरिया है। मेरा आज भी यह सोचना है कि पत्रकारिता एक जज्बा है और एक जुनून है जिससे आप अपनी ज्ञान की भूख समाज से सीधे संवाद कर शांत कर सकते हैं। लेकिन जब चारों तरफ नजर दौडाते हैं तो वास्तविकता कुछ और ही नजर आती ह। वास्तव में मीडिया और मीडिया से जुडे लोगों ने अपने आप को इतना बडा मान लिया है कि वे समाज से कट से गए हैं और कुछ विशिष्ट बनने की चाह ने पत्रकार को वीआईपी भी समझ चुके है। मीडिया अपने दायित्व से विमुख होता जा रहा है और आज पत्रकारिता शुद्ध रूप से व्यावसाय बन गया है। वर्तमान में राजस्थान में चुनावी माहौल चल रहा है। मुझे मेरे एक पत्रकार मित्र ने एक उम्मीदवार के मीडिया सेल को संभालने के लिए कहा। मुझे यह काम पेशेवर चरित्र के खिलाफ लगा तो मैंने यह काम करने से मना कर दिया। अगर मै उस उम्मीदवार के लिए काम करता तो शायद मेरा नजरिया पत्रकार का न होकर एक ठेकेदार का हो जाता जिसने अमुक उम्मीदवार के लिए काम करने का ठेका लिया है। खैर व्यावसायिकता के इस दौर में यह कोई बडी बात नहीं है और मेरा इस काम के लिए नकाराना मेरे मित्रों को मूर्खता ही लगेगा। हम चुनाव के इस संदर्भ में ही ले तो यह बात सामने आती है कि वास्तव में अखबारों में उसी उम्मीदवार की खबरे लगती है जिसने खबरें लगवाने के लिए कोई कीमत चुकाई है। इसे विज्ञापन की श्रेणी मे खडा करके इम्पेक्ट न्यूज के नाम से परोसा जा रहा है लेकिन सब जानते हैं कि जो उम्मीदवार यह कीमत नहीं चुकाता है उसे अखबार के किसी कोने में वह स्थान दे दिया जाता है जहाँ सभी की नजरें कम ही जाती है। मैं आपको यह बात एक उदाहरण देकर समझाना चाहगा कि मेरे शहर बीकानेर के एक राष्ट्रीय पार्टी के लोकप्रिय उम्मीदवार ने अपना नामांकन हजारों समर्थकों के साथ दाखिल किया और सारे शहर में यह चर्चा का विषय था कि इतनी भीड लेकर किसी उम्मीदवार ने आज तक अपना पर्चा नहीं भरा है और निश्चय ही भीड कल के अखबार मे देखने को मिलेगी। इस उम्मीदवार के बारे में यह चर्चा है कि वह आने वाले समय में प्रदेश का मुख्यमंत्री भी हो सकता है लेकिन यहाँ के राष्ट्रीय स्तर के अखबारों ने इस खबर को ऐसे लगाया जैसे किसी निर्दलीय ने अकेले जाकर नामांकन दाखिल कर दिया हो तो फिर फोटो लगाने का तो सवाल ही नहीं उठता। अगले ही दिन एक निर्दलीय उम्मीदवार ने अपना नामांकन दाखिल किया और वह उम्मीदवार एक धन्ना सेठ है तो इम्पेक्ट न्यूज के नाम पर वह वो जगह पा गया जिसकी आम आदमी कल्पना ही नहीं कर सकता है। तो इस तरह खबरें बिकने लगी है और पत्रकार की कलम की धार उतनी ही तेज होती है जितनी की उस धार की कीमत चुकायी जा रही हैं। अब आम आदमी क्या जाने की इम्पेक्ट न्यूज क्या है और बिना दाम की न्यूज क्या। सच्चे, निहित स्वार्थो से परे, निर्भीक, सच्ची, खरी-खरी खबरों को परोसे जाने को लेकर बडे बडे दावे करने वाले इन अखबारों के भरोसे मे रहकर हवाओं का अनुमान लगाने वाले तो यह ही समझते हैं कि शायद इम्पेक्ट न्यूज वालों का जोर ज्यादा है। मीडिया के इस बिकाउपन ने वास्तव में मीडिया के स्तर को गिरा दिया है। वर्तमान में राजस्थान सहित कईं राज्यों में लोकतंत्र का सबसे बडा उत्सव मनाया जा रहा है। जनता अपने पाँच साल के भाग्य का फैसला करेगी। भारत जैसे देश में जहाँ शिक्षा की कमी व अनुभव के चलते अभी लोकतंत्र की समझ का अभाव है जातिगत कट्टरता और क्षेत्रीयता ने लोकतंत्र को प्रभावित कर रखा है। अतः यहाँ मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा बढ जाती है कि वह अपने काम को एक हवन मान कर करें और अपनी पूरी ताकत लगा दे कि जनता अपने सही मत का सही तरीके से प्रयोग कर सके। एक तरफ हम यह बात करते हैं कि राजनीति में स्तर गिर रहा है, वोट खरीदे जा रहे हैं, दारू पिलाकर वोट ले लिए जाते हैं, जाति की धारणा जीत को जय करती है तो ऐसी स्थिति में मीडिया की यह प्रमुख जिम्मेदारी है कि वह इन सब बातों को उजागर करें और जनता को यह बताने का प्रयास करें कि वर्तमान में उसका क्या महत्व है। आज किसी न किसी रूप में मीडिया ने घर घर पहच बनाई है और लोगों को आज भी भरोसा है कि मीडिया में सच छपता है तो ऐसी स्थिति में मीडिया की भरोसे को कायम रखते हुए जिम्मेदारी से अपने दायित्व का निर्वहन करना चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि मीडिया से जुडे लोग इसे कमाई के दिनों के तौर पर देखेते हैं और ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरने का प्रयास करते हैं। इस बारे मे जब इनसे बात की जाती है तो यह सुनने को मिलता है कि अभी को सीजन है अभी नही विज्ञापन नही बटोरने तो कब बटोरेंगें। उम्मीदवारों और पार्टीयों से विज्ञापन बटोरने का काम जोरों पर है और कुछ को तो तनख्वाह व कमीशन के आधार पर ही विशेष नियुक्ति दी जारही है। उम्मीदवार भी जानते हैं कि अगर हमें अखबार में जगह पानी है तो कीमत चुकानी पडेगी और हम पैसा देकर जो चाहे वो छपा लेंगे। और ऐसा हो भी रहा है। ऐसी स्थिति मे पाठक जो कि एक आम मतदाता भी है क्या उम्मीद करे की हम स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना कर पाएंगे। धरातल की हकीकत देखते हैं तो दिल चीख उठता है और लगता है कि जैसे व्यावसायिकता ने मीडिया की ऑंखों पर पट्टी बाँध दी है और उसे पूर्णरूप से बिकाउ बना दिया है। लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ पर वर्तमान में भारी जिम्मेदारी है और उसे चाहिए कि वह इस बोझ को उठाएं ताकि जागरूक पाठकों का विश्वास कायम रह। अनेकों बार हमे उलट सुनने को मिल जाता है कि एक पत्रकार की क्या औकात होती है इसे तो एक प्लेट नाश्ता और एक कप चाय पिला दो और अगले दिन अखबार देख लो, सब कुछ माफिक मिल जायेगा तो धरातल पर देखकर ऐसा लगता भी है कि उनकी ये उलाहना सही है। हो सकता है कि मेरी यह बात कईं पेशेवर बन्धुओं को बुरी लगे लेकिन जिन्हें बुरी लगती है वे भी जानते हैं कि सच यही है और बुरी लगने का कारण भी यह है कि आखिर यह बात आपने कैसे कह दी। लेकिन दोस्तों वास्तविकता यही है कि आम लोग हमारे बारे में ये बातें करते हैं और हमे ज्यादा दुख इसी बात का होता है। मैं कहना चाहगा की जो व्यक्ति नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है वह नादान है और उसे माफ किया जा सकता है लेकिन जो जानता है कि वह क्या कर रहा है और फिर भी वह गलत करता है तो वह अपराधी है। आखिर यह हालात बने क्यों अगर हम यह सोचें तो ज्यादा अच्छा होगा। अब क्या करे, बेरोजगारी ने भी गली गली में पत्रकार पैदा कर दिये है। एक छोटा सा अखबार निकालते हैं जिसकी पचास प्रतियाँ भी नहीं छपती है लेकिन वो अपने आप को किसी राष्ट्रीय समाचार पत्र के सम्पादक से कम नहीं समझते, सरकारी कागजो में हजारों प्रतियाँ बेच कर वह अपने पत्रकार होने का अहसान पूरे देश पर जमाता है। वास्तव में मीडिया का नजरिया समाज के प्रति बदल गया है। पत्रकारों में सेवा की भावना नहीं रही है और वे अपने आप को किसी आई ए एस अधिकारी से कम और किसी एम पी, एम एल ए से नीचा नहीं देखते। एक पत्रकार की चाह रहती है कि वह किसी लाईन में खडा न हो, उसे घर बैठे ही गैस सिलेण्डर उपलब्ध हो जाए, वह तब किसी अस्पताल में जाए तो डॉक्टर उसे छोडने बाहर आए और जब वह किसी अधिकारी से बात करे तो अधिकरी की घिघ्घी बंध जाए, उसके कहने से उसके साथियों का स्थानान्तरण हो और पुलिस का कोई हवलदार ट्रेफिक नियमों के नाम पर उसे तंग न करे आदि आदि। मेरे कहने का मतलब है कि पत्रकार में सेवा की भावना नहीं रही और वह अपने आप को अभिजात्य वर्ग का समझने लगा है। समाज से दूर रहकर समाज सेवा नहीं की जा सकती और मीडिया की समाज से दूरी ने मीडिया को बिकाउ बना दिया है। टी वी चैनलों का गिरता स्तर आज आप सब के सामने हैं। दिन भर खून खराबा के खबरें, किसी स्टंट के नाम पर सनसनी और किसी ऐसी खबर की चर्चा जिसे आप किसी फिल्म में देखना पसंद करते हैं। वास्तव में मीडिया के ताकतवर होने की चाह ने उसे अंधा बना दिया है। किसी ने कहा कि मीडिया एक हाथी है जिसे खाने के लिए बहुत कुछ चाहिए और जब कुछ नहीं मिलता तो मदमस्त हाथी भूख से आतंक मचाने लगता है और चौबिस घंटों के चैनलों और चौबीस पन्नों के अखबारों की यह मजबूरी है कि वह कुछ न कुछ तो दिखाऍं, कुछ न कुछ तो लिखें और जब कुछ नहीं होता तो खबरें बनाई जाती है और राई का पहाड बनता है। तो मैं पूछना चाहता ह कि क्या यह जरूरी है कि आप चौबीस घंटे खबरें ही दिखाओं और चौबीस पन्नों का अखबार निकालो ही निकालो। समाज में जरूरी है वह ही जरूरी रहे तो अच्छा है गैर जरूरी को जरूरी बनाया जाना उचित नहीं है। हो सकता है कि मेरा यह लिखा किसी संभ्रांत पत्रकार को पंसद न आए लेकिन यह सच है और सच से मह मोडकर सच को मिटाया नहीं जा सकता। मैं उन पत्रकारों से माफी मांगता ह जो पत्रकारिता को एक मिशन समझते है और इसे पूजते हैं। आज भी समाज में ऐसे पत्रकार हैं जो समाज की सेवा को ही अपना धर्म मानते है और म उन सब को कोटि कोटि नमन करता ह। आज भी ऐसे लोग हैं जिनसे उम्मीद की किरण बाकी है। मैंने यह सारा अपने अनुभव के आधार पर लिखा है।

6 Comments " बिकता मीडिया गिरता स्तर "
काफी गंभीर विचार। जारी रखें।
Aapke Vicchar Vakai Mai Bahut Hi Gambhir Hai,mein aapki baato se purntaya sehmat hu, kucch moukaparast log Patrakar ban gaye hai jo iss Peshe se jude kucch Acche logo ko bhi Badnaam kar rahe hai. vastav mai aaj Media Samaajh ka aaina hai,jo samaajh mai vyapt buraiyo ko sab k samne rakh kar benakaab kare,lakin ye bhi succh hai ki aaj k iss Jamane mai ye sirf kalpna matra hai ki media wale samajh seva kar rahe hai,aaj aaye din media dusro k bhrastachar ki baat karta hai lakin khud media mai kitne log bhrastachari hai,iska koi lekha nahi hai,koi report nahi hai! mein short mai yayi kahunga Media ke liye ki Nijh per Saasan,Fir Anusaasan..
jago medi walo jaago kyonki iss Desh ko aapki Jarurat hai....apni imaandari se iss desh ki Janta ki Seva Karo Varna ek din Log khuleaam Politicians aur Poolice walo ki tareh Patrkaro ko bhi Kalam wale Ghunde Kehne mai Sankocch nahi karegi!
आपके विचार बहुत ही अच्छे है क्युकि शायद सरकार वो होती है जिन्हें हम जानते नही फिर भी भरोसा कर के अपने भविष्य के लिए उन्हें चुनते है पर जब किसी ने मीडिया मे अपना पहला कदम रखा होगा तो ये सोचकर कि मीडिया वो होगी जिन्हें न लोग जानते है न ही चुनते है फिर भी अपने देश के लिए एक जज्बा कुछ लोगो को सडको तक ले आयेगा, ताकि दुनिया को सही राह मिल सके, पर वक़्त के साथ साथ हर चीज़ बदलती है और चंद लोगो के अलावा बाकि मीडिया का जज्बा भी बदल ही गया| किसी ने सही कहा है एक चिंगारी भी आग लगा सकती है पर अब तो चिंगारी ने आग का रूप ले लिया है अब नेता और मीडिया मे सिर्फ सफ़ेद चोले का अंतर रह गया है बस कुछ वर्षो मे पत्रकार के लिए शायद चुनाव होने बाकी है
aapke vichar jaankar kafi accha laga. aapne wo hi likha hai jo such hai aur such to batane wale log kam hi milte hai
good
keep writing
but do not centralise on one persone.
keep writing
Post a Comment