व्यक्ति को पुत्र की चाहत हमेशा से रहती है और मरने के बाद यही पुत्र अपने पिता व दादा व अन्य पूर्वजों को तर्पण करता है। तर्पण करने के लिए हमारे हिन्दु महीनों में पंद्रह दिन तय किए गए हैं इन्हीं पंद्रह दिनों को श्राद्ध पक्ष कहते हैं। आईए जानते हैं कि इस श्राद्ध का क्या महत्व है और क्या क्या बातें इससे जुडी है।
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भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि व्यक्ति को अपनी जी जाति की कन्या से विवाह करना चाहिए। दूसरी जाति में विवाह करने से उस कुल में शंकर संताने पैदा होती है और शंकर संतानों के हाथों से पूर्वज तर्पण ग्रहण नहीं करते और नहीं वे पूर्वज शंकर संतानों के हाथों किया श्राद्ध ग्रहण करते हैं। अतः सजातिय कुल में किया गया विवाह पूर्वजों का आशीर्वाद दिलवाता है और इससे पूर्वजों के प्रसन्न रहने से कुल व वंश में सुख, शांति व सम्पन्नता रहती है।
भाद्रपद की पूर्णिमा एवं अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष कहलाता है। इस पक्ष में मृतक पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध करने का अधिकार ज्येष्ठ पुत्र अथवा नाती का होता है। पुरूष के श्राद्ध में ब्राह्मण को और औरत के श्राद्ध में ब्राह्मणी को भोजन कराते हैं। भोजन में खीर पूडी होती है। भोजन के पश्चात् दक्षिणा दी जाती है। पितृ पक्ष में पितरों की मरण तिथि को ही उसका श्राद्ध किया जाता है । गया में श्राद्ध करने का बडा महत्व माना गया है। जिस व्यक्ति का श्राद्ध गया में करवा दिया जाता है उसका पितृ पक्ष में अलग से श्राद्ध निकाला जाए यह जरूरी नहीं है। पितृ पक्ष में देवताओं को जल देने के पश्चात् मृतकों का नामोच्चारण करके उन्हें भी जल देना चाहिए।पद्मपुराण के अनुसार श्राद्ध कर्म में चाँदी से युक्त पात्र अथवा चाँदी के पात्र का प्रयोग करना चाहिए। स्वधा शब्द के उच्चारणपूर्वक पितरों के उद्देश्य से किया गया हुआ श्राद्ध पान पितरों को सर्वदा सन्तुष्ट करता है। श्राद्ध कर्म करते समय यज्ञोपवित को दाहिने कंधे पर करके तर्पण, तिलदान करना चाहिए। पद्मपुराण में बताया गया है कि श्राद्ध कर्म में कुश, उडद, साठी धान का चावल, गाया का दूध, मधु, गाय का घी, सावाँ, अगहनी का चावल, जौ, तीना का चावल, मग गन्ना और सफेद फूल इन सब वस्तुओं का प्रयोग किया जाना चाहिए और ये सब वस्तुऍ पितरों को प्रिय है। श्राद्ध कर्म में मसूर, सन, मटर, राजमाष, कुलथी, कमल, बिल्व, मदार, धतूरा, पारिभद्राट, रूषक, भेड बकरी का दूध, कोदो, दारवरट, कैथ, महुआ और अलसी इन सब का प्रयोग नहीं करना चाहिए। श्राद्ध कर्म के लिए इन सब को वर्जित किया गया है।
पद्मपुराण में कहा गया है कि मुख्य रूप से श्राद्ध तीन प्रकार का होता है। प्रथम नित्य श्राद्ध द्वितीय नैमित्तिक श्राद्ध और तृतीय काम्य श्राद्ध। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने पितरों का तर्पण करे। पितृकार्य को देव कार्य से भी बढ कर कार्य बताया गया है। अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को तृप्त करना चाहिए। पितृगण प्रसन्न शीघ्र होते हैं और पुष्टि, आरोग्य, संतान और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध कर्म के लिए विद्वान व्यक्तियों को चाहिए कि वे अग्निहोत्री और सोमपायी ब्राह्मणों के द्वारा अग्नि में हवन करवाकर पितरों को तृप्त करे। अग्नि के अभाव में ब्राह्मण के हाथ में अथवा जल में या शिवजी के स्थान के समीप पितरों के निमित्त दान करे, ये ही पितरों के लिए निर्मल स्थान है। हमारे देश में गया नामक स्थान पर किए गए श्राद्ध को भी विशेष महत्व दिया गया है। यह जगह वर्तमान में बिहार में स्थित है। गया क्षेत्र में जो धर्मपृष्ठ, ब्रह्मसार तथा गयाशीर्षवट नामक तीर्थों में पितरों का पिण्डदान किया जाता है, वह मार्ग में पैर रखते ही नरक में पडे हुए अपने पितरों को तुरंत स्वर्ग में पहचा देता है। उसके कुल में कोई प्रेत नहीं होता। ऐसा माना गया है कि गया में पिण्डदान से बढकर कोई दूसरा दान नहीं है। गया में पिण्डदान करने से पितरो को मोक्ष की प्राप्ति होती है। अमावस्या का श्राद्धपितृ पक्ष की अमावस्या को किए गए श्राद्ध का बहुत महत्व हमारे शास्त्रों में बताया गया है। अमावस्या को किया गया तर्पण व श्राद्ध का महत्व इसलिए है कि इस दिन किया गया श्राद्ध का फल हमारे तमाम पूर्वजों को प्राप्त होता है और उन्हें देवलोक की प्राप्ति होती है। अगर कोई व्यक्ति यह भूल जाए कि उसके किस पूर्वज का किस तिथि को निधन हुआ था तो वह अमावस्या को उसका श्राद्ध कर उसे तर्पण दे सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन के श्राद्ध को वे तमाम पूर्वज ग्रहण करते हैं जिन्हें हम भूल चुके हैं और जो हमारे कुल व वंश से जुडे हैं। एक व्यक्ति अपने पिता की पाँच पीढयों तक व माता की सात पीढयों तक को तर्पण कर सकता है और अमावस्या को किए गए श्राद्ध का वही महत्व है कि पिता व माता के उन तमाम पूर्वजों को इससे शांति मिलती है। इसी कारण अमावस्या के श्राद्ध का महत्व है। मातामह श्राद्धमातामह श्राद्ध अपने आप में एक ऐसा श्राद्ध है जो एक पुत्री द्वारा अपने पिता को व एक नाती द्वारा अपने नाना को तर्पण किया जाता है। इस श्राद्ध को सुख शांति का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह श्राद्ध करने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें है अगर वो पूरी न हो तो यह श्राद्ध नहीं निकाला जाता। शर्त यह है कि मातामह श्राद्ध उसी औरत के पिता का निकाला जाता है जिसका पति व पुत्र जिन्दा हो अगर ऐसा नहीं है और दोनों में से किसी एक का निधन हो चुका है या है ही नहीं तो मातामह श्राद्ध का तर्पण नहीं किया जाता। इस प्रकार यह माना जाता है कि मातामह का श्राद्ध सुख व शांति व सम्पन्नता की निशानी है। यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में अपनी बेटी के घर का पानी भी नहीं पिता और इसे वर्जित माना गया है लेकिन उसके मरने के बाद उसका तर्पण उसका दोहित्र कर सकता है और इसे शास्त्रोक्त माना गया है।बीकानेर में श्राद्ध पक्ष के दौरान माहौलबीकानेर में पिछले दस दिनों से श्राद्ध पक्ष के दौरान काफी श्रद्धा का महौल है। प्रत्येक तिथि को लोग अपने पितरों को तर्पण कर रहे है। इस दौरान पंडितों व कर्मकांडी ब्राह्मणों की काफी जरूरत पडती है। इस कारण एक ब्राह्ण एक दिन में कईं घरों में तर्पण का कार्य करवा रहे हैं। बीकानेर में श्राद्ध के पक्ष को ध्यान में रखते हुए कईं स्थानों में चौकों में अस्थाई रूप से मिठाई की दुकाने लगाई गई हैं और बडे बडे दुकानदार भी इन दिनों कम कीमत पर मिठाई उपलब्ध करवा रहे हैं। मोहता चौक में मस्ताना मित्र मिण्डल, आचार्यों के चौक में रॉयल मित्र मण्डल और जस्सूसर गेट पर माहेश्वरी सेवा समिति द्वारा कम किमत पर अच्छी क्वालिटी की मिठाई उपलब्ध करवाई जा रही है। इन स्थानों पर दिनभर भीड देखने को मिल रही है। हालात यह है कि लोग दो दिन पहले ही अपनी मिठाई बुक करवा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ पितरों को तर्पण करने के लिए भी लोगों को ब्रह्म मुहुर्त में उठना पड रहा है। बीकानेर के हर्षोलाव तालाब, संसोलाव तालाब और कन्नू रंगा की कोटडी सहित कोलायत व दूसरे स्थानों पर भी इन दिनों तर्पण करते हुए लोग दिखाई दे जाएंगे। पूरी कि्रयाविधि व शास्त्रोक्त रीति से तर्पण व पिण्डदान का कार्य किया जा रहा है। पंडित नथमल पुरोहित, मोतीलाल ओझा के परिवार से पंडित प्रहलाद, पंडित दुर्गाश्ंाकर सहित कईं कर्मकांडी ब्राह्मण इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। इसके साथ ही साथ प्रतिदिन अपने घर में ही हवन करके तर्पण करने वालों की संख्या भी बडी मात्रा में है। एक व्यक्ति अपने माता पिता, दादा दादी व परदादा व परदादी का श्राद्ध व तर्पण सामान्यतया करता है। इस दौरान वह अपने घर या घर से बाहर दूसरे स्थानों पर पिण्डदान व तर्पण कार्य करता है। उसके बाद अपने घर पर अपने परिवार के नियमित पंडित को बुलवाकर भोजन करवाता है और बाद में घर के सब सदस्य भोजन ग्रहण करते है। श्राद्ध पक्ष में घर के दोहितों व भानजों का विशेष ध्यान रखा जाता है। यह कोशिश रहती है कि भानजे व दोहिते अपने ननिहाल में ही भोजन करे और आंगन में बैठकर खाना खाए। वैसे तो बीकानेर में अपने ननिहाल जाने का परम्परा है और प्रतिदिन ननिहाल जाते रहते है परंतु इन दिनों खास आवभगत की जा रही है।कौओं का महत्वऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौए का जन्म लेता है और ऐसी मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरो को खाना मिलता है। इसी कारण है कि श्राद्ध पक्ष में कौओं का विशेष महत्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है वह एक थाली में सारा खाना परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और जोर जोर से कोबस कोबस कहते हुए कौओं को आवाज देता है। थोडी देर बाद जब कोई कौआ आ जाता है तो उसको वह खाना परोसा जाता है। पास में पानी से भरा पात्र भी रखा जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध है वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है। कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोडकर किसी भी गलती के लिए माफी मांग ली जाती है और फिर कौए को खाना खाने के लिए कहा जाता है। जब तक कौआ खाना नहीं खाता व्यक्ति के मन को प्रसन्नता नहीं मिलती। इस तरह श्राद्ध पक्ष में कौओं की भी पौ बारह है और काफी मान मनौव्वल का दौर चल रहा है।


Article by : श्याम नारायण रंगा (Shyam Narayan Ranga)
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